श्रीयोगेश्वर महादेव

 इसी आचार्य पीठ के परिसर के उत्तर दिशा में श्रीसीतारामजी के मन्दिर से सटा ही 'वैष्णवानां यथा शम्भुः' शास्त्र से वर्णित अनन्य श्रीराम नामोपासक भगवान् श्रीशंकरजी की १९६२ में वट वृक्ष के निचे प्रतिष्ठा हुई। अनन्तर भव्य शिखर बन्ध मन्दिर वधवाकर अलक्षगती में संचरणशील कर्पूरगौर श्रीशंकरजी के द्वारा प्रदत्त युगल स्वेतलिंग को १९७१ श्रीरामनवमी के दिन विशेष समारोह के साथ स्थापित किये गये। दोनों ही दिव्य मूर्ति साधकों की कामनापूर्ण करने में प्रसिद्ध हैं साधकों की भीड जमी रहती है ।


श्रीहनुमानत्रयी निकुंभिला मर्दक श्रीहनुमानजी

 आचार्यश्री श्रीयोगीराजजी द्वारा इन चमत्कारक श्रीहनुमानजी की कथा कहने मेंआई वह विचित्र एवं रसप्रद है। समुद्रोपजीवी (खारवाजाती का व्यक्ति) को यह मूर्ति समुद्र के अन्दर से मिली उस साधक ने पुजा आराधना की दृष्टि से श्रीजानकीमठ-आचार्यपीठ की शाखा अवधविहारीजी का मन्दिर पोरवन्दर में रखदी बहुत समय के बाद आचार्यश्री अहमदावाद पधार रहे थे, तव श्रीहनुमानजी का संकेत प्राप्त कर आचार्यपीठ में ले आकर वट वृक्ष के नीचे प्रतिष्ठित कर दिये । जिन्हें तेल सिन्दूरचढ़ता है। साधकों की प्रत्येक कामनायें श्रीहनुमानजी पूर्ण कर देते हैं। श्रीहनुमानजी के तीन मुह प्रत्यक्ष दिखते हैं जिसे पाताल में अहिरावण के द्वारा तामसिक पदार्थ उसके आराध्य देवी को धराये गये को भक्षण के लिए धारण किये थे। आप श्रीसम्प्रदाय के परमाचार्य हैं । अतः श्रीसम्प्रदाय के सत् स्वरूप के रक्षा हेतु सिंह एवं वराह प्रभृति का स्वरूप धारणकर तामस पदार्थों का ग्रहण किये । सात्विक पदार्थों का ग्रहण स्व श्रीमुख से किया । यह श्रीसम्प्रदाय सिद्ध वार्ता है। आपकी मनौती से सभी की कामनायें पूर्ण होती है ये अति चमत्कारी हैं


सिद्धेश्वर श्रीहनुमान जी

 श्रीयोगेश्वर भगवान के बगल में सिद्धेश्वर के रूपमें श्रीहनुमान जी विराजमान हैं उनकी प्रतिष्ठा १९७१ श्रीरामनवमी के दिन हुई । सिद्धि की ईच्छा रखनेवाले साधक आपकी विशेष आराधना करते हैं। आराधना के अनुरूप सिद्धि प्राप्त होती है

मनोकामना सिद्ध श्रीहनुमानजी

 श्रीसाकेल विहारीजी के वामभाग में द्वारपाल के स्वरूप में श्रीरामनवमी दि.२५-३.६१ को श्रीमनकामना सिद्ध हनुमानजी की प्रतिष्ठा हुई । आपकी आराधना से साधकों की अनेक प्रकार की मनोकामना की सिद्धि हुई एवं हो रही है। ये श्रीहनुमानजी सत्वगुण प्रदान व्यक्तियों के लिये ही अधिक अनुकूल हैं । अतः तदनुरूप ही आपकी सेवा पूजा होती है।

श्रीअम्बामाताजी

 भगवान् श्रीयोगेश्वरजी की शक्ति स्वरूपा श्रीअंबाजी की प्रतिष्ठा १९७१ श्रीरामनवमी के दिन सम्पन्न हुई। एवं श्रीराम नाम रस रसिका श्रीपार्वती जी की प्रतिष्ठा भी उसी दिन सम्पन्न हुई। यह तो जगजाहिर है कि "पति देवता सुतियह्न मह मातु प्रथम तव रेख" के अनुसार अविवाहिता बालिका या विवाहिता महिलाओं के लिये प्रेरणाश्रोत बनी हुई है। सभी साधिकाएं अपनी अपनी भावनानुसार इच्छित फल को प्राप्त कर लेती हैं ।


प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यकार जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी

 हिन्दू धर्मोद्धारक जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की प्रतिष्ठा श्रीरामनवमी १९७१ में की गई जो श्रीसाकेत विहारीजी के दक्षिण वाहु तरफ विराजमान हैं। यह तो सर्व विदित है कि "रामनन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले" मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजी के समान ही मर्यादित सर्वजनोद्धारक पतित पावक हैं । आपकी सेवा स्तुति वन्दना आदि से प्रस्थानत्रयानंद भाष्यों का रहस्य एवं साम्प्रदायिक तत्व का अनायास प्रस्फुरण हो जाता है । अत: साधक लोग आपकी नियमित रूप से आराधना करते हैं।


श्रीरघुवर रामानन्द वेदान्त महाविद्यालय

 आचार्यपीठ की शिक्षा शाखा के रूपमें इस महाविद्यालय की स्थापना विजयादशमी दि.२८-९-१९६३ को हुई । इस महाविद्यालय में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय वाराणसी एवं राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान नई दिल्ली प्रभृती संस्थाओं की प्रथमा से आचार्य तक का अभ्यास क्रम विविध विषयों में कराने की व्यवस्था है । श्रीरामानन्द वेदान्त की शिक्षा के लिये यह महाविद्यालय अद्वितीय है । इसके एक एक इंट एवं कण श्रीरघुवर एवं श्रीरामानन्द के नामों से गुंजायमान हैं । एवं उनके गौरवपूर्ण सिद्धांत से ओतप्रोत हैं। इस महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्तकर भारत एवं नेपाल आदि के अन्तराष्ट्रिय छात्र अपने जीवनपथ में आगे बढे हैं एवं बढ रहे हैं । महाविद्यालय का अनुशासनबद्ध छात्रों की जीवन पद्धति अनायास ही सम्पर्कित व्यक्तियों के मन को आकर्षित कर लेती है।


श्रीआनन्दभाष्यमुद्राणालयम्

 श्रीरामानन्द वेदान्त साहित्य के विषद प्रचार-प्रसार एवं आचार्यपीठ पत्रिका के प्रकाशन में स्थायित्व प्रदान करने के लिए आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी ने दि०२३.९.१९८५ को श्रीहनुमत् जयन्ती के दिन आनन्दभाष्य मुद्राणालय का शुभारंभ किया । जहां से आजतक साम्प्रदायिक तत्त्व प्रकाशन परक छोटे बडे सैकडों निवन्ध प्रबन्ध या समीक्षा ग्रन्थों के प्रकाशनातिरिक्त श्रीरामतत्व भाष्कर गीतानन्दभाष्य वेदार्थचन्द्रिका तत्वत्रयसिद्धि जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य प्रभृति सैकडों वेदांत तत्त्व प्रकाशक वृहदाकार ग्रन्थों के प्रकाशनातिरिक्त सहस्त्र पृष्ठाधिक महामहोपाध्याय जगद् विजयी जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरघुवराचार्यजी स्मृति ग्रन्थ जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यश्रीरामप्रपन्नाचार्यजी स्मृति ग्रन्थ जगद्गुरुश्रीरामानन्दाचार्यपीठस्मारक स्मृतिग्रन्थ प्रभृति का प्रकाशन हुआ।

 हिन्दू धर्मोद्धारक जगद्गुरुश्रीरामानन्दाचार्य जी की(श्रीसम्प्रदाय) परम्परा मे ४२ वें जगद्गुरु स्वामीश्रीरामाचार्यजी वर्तमान समय में मुख्य पीठ जगद्गुरुश्रीरामानन्दाचार्य पीठ श्रीशेषमठ शींगडा (विश्राम द्वारका) एवं जगद्गुरुश्रीरामानन्दाचार्य पीठ अहमदाबाद श्रीकोसलेन्द्र मठ में वर्तमान आचार्य श्री के पद पर अभिषिक्त है। जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य पीठ में विराजमान होने के पश्चात् आचार्य श्री ने श्रीसाकेतविहारी जी (श्रीसीतारामजी) के लिए दिव्य सिंहासन एवं जगमोहन (प्रागंण) में संगमरमर पत्थर (मार्बल)लगवाकर मन्दिर की शोभा में अभिवृद्धि की। श्रीकोसलेन्द्र मठ में गौशाला की स्थापना की क्योंकि "गावो विश्वस्य मातर:" गाय सम्पूर्ण विश्व की माता है। वैदिक काल से ही गुरुकुलों में तथा आश्रमों में गौशाला की व्यवस्था एवं गौमाता ओं की दिव्य सेवा-पूजा होती आ रही है, उसी वैदिक परम्परा को पुन: जागृत करने हेतु जगद्गुरुश्रीरामाचार्यजी ने गौशाला कीस्थापना की | क्योंकि देवार्चना होम ,पितृश्राद्ध, दर्शपौर्णमास, इष्टी (एकदिवस साध्य श्रौत हवनकर्म) आदि श्रौत तथा स्मार्त पूजन-अनुष्ठान आदि गौमाता के दूध-दही-घी-गौमूत्र-गोमय के बिना सम्पन्न नही हो सकता इसी कारणवश जगद्गुरुस्वामीश्रीरामाचार्य जी के करारविन्दों से गौशाला की स्थापना हुई। जगद्गुरुश्रीरामानन्दाचार्य पीठ श्रीशेषमठ शींगडा श्री विश्रामद्वारकाधीश जी के दर्शनार्थ पधारनेवाले अतिथि सन्त-महन्तों के विश्राम हेतु अद्यतन- सुविधाओं से सुज्जित "अतिथि भुवन" का निर्माण आचार्य श्री के करकमलों से सम्पन्न हुआ और विश्रामद्वारकाधीश के मन्दिर परिसर तथा गौशाला इत्यादि में जीर्णोद्धार निर्माण कार्यप्रगति है|


एक पौराणिक तीर्थ

 स्थिति--ललितनगर पोरबन्दर-सुदामापुरी से लगभग ३५ किलोमीटर के अन्तर पर उत्तरपूर्व के कोनेमें यह तीर्थ अवस्थित है । आज वहाँ विश्रामद्वारका (शींगडा) नामक ग्राम है जो वर्तु तथा कमण्डलु नदियों के तट पर स्थित है।

 प्राचीन काल में यह स्थान ऋषि मुनियों के आश्रमों से शोभायमान रहता था ऋषि श्रृंगी का यहीं पर आश्रम होने से यह स्थल आश्रम के नाम से प्रसिद्ध है पूर्वकाल में यह ग्राम श्रृंगीपुर के नाम से प्रसिद्ध था कालांतर में श्रृंगी नाम का अपभ्रंश होकर श्रृंगी से शींगडा हुआ। द्वापर युग में भगवान् श्रीकृष्ण ने जरासंध के आक्रमण से यादव कुल की सुरक्षा हेतु सौराष्ट्र प्रदेश के अंतर्गत द्वारिका में शेष लीला संपन्न करने के लिए देव शिल्पी श्रीविश्वकर्माजी के द्वारा द्वारिका का निर्माण करवाए जब भगवान् श्री कृष्ण द्वारिका जा रहे थे उसी समय भगवान श्री कृष्ण जी ने विश्राम द्वारिका में विश्राम किए इसीलिए इस स्थान का नाम विश्राम द्वारिका नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यातायातके साधन-पोरबन्दर से द्वारकाकी ओर जानेवाली राज्य परिवहन की बसोंका एक स्टैण्ड मजीवाणा है । यहां से ५ किलोमीटर उत्तर में यह तीर्थ अवस्थित है यहां अब एक गांव है जिसे विश्रामद्वारका (शींगडा) श्रृंगपुर कहते हैं । पोरबन्दर से दिन में पांच बार राज्य परिवहन की बसें जिनपर "पोरबन्दर शिशली " लिखा रहता है, ठेठ तीर्थ के मुख्य फाटक "जगद्गुरुश्रीरामानन्दाचार्यपीठ श्रीशेषमठ" के प्रवेश- द्वार तक पहुंचाती है वही से पोरबन्दर की ओरके यात्रियों को वापस लाती है। द्वारका की ओर से आनेवाले तीर्थयात्री मजीवाणा उतरकर तीर्थ तक पहुंचते हैं ।

इतिहास-वर्तमान शींगडा नामक गांव जो लगभग ३५० वर्ष पहले वसा है,उस से पूर्व वहां क्या था निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता वैसे किंवदन्ती में इस तीर्थ विषयक इतिहास क झलक दिखती है जिसमें मलिककाफूर का द्वारका ध्वंसका विवरण है । वस्तुतः वर्तमान द्वारकाको नाम मात्रकी क्षति पहुंची थी परन्तु यह तीर्थ विश्रामद्वारका ही नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया था ऐसा पौराणिक एवं साहित्य से प्रतीत होता है।

 इस तीर्थकी स्थितिको द्वापर में लेजाती हैं और मान्यता है कि भगवान कृष्णने द्वारका जाते हुए यहाँ विश्राम किया था एक ऐसी भी जनश्रुति है कि श्रीसुदामाजीने यहां विश्राम किया था। यह घटना तवकी कही जाती है जब वे भगवान श्रीकृष्णसे मिलने द्वारका जा रहे थे । एक ऐसी भी मान्यता है कि त्रेतायुगीन ऋषिश्रृंगीजी भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शनार्थ जाते हुए अशक्त होकर यहीं रुक गये थे और भक्तवत्सल भगवान् को स्वयं ही उन्हें दर्शन देने के लिये दौड आना पडा था। ( शृङ्गपुर, सुषुमा १-१०) आचार्य पीठकी परम्परा द्वारा इस तीर्थको कमसे कम ई० सन् पूर्व द्वितीय शताब्दी का कहा जा सकता है क्योंकि उसमें श्रीसम्प्रदाय के एक आचार्य श्रीसदानन्दाचार्यजी द्वारा यहां आना कहा गया है । आचार्यजी का समय ई० पूर्व २८०-२३ है । "श्री त्रिदण्डि संस्थान श्रीरामान्दाचार्यपीठ श्रीशेषमठ" शीर्षक तले मठीय मान्यता संकलित हैं ।

 सभी कुछ विस्मृति के गहन गर्त में है जहां केवल मठीय परम्पराओं तथा इतिहास के माध्यमसे झांका जा सकता है । वस्तुतः आचार्यपीठ का इतिहास ही तीर्थस्थान का इतिहास बन गया

तीर्थ यात्रा का फल तथा महात्म्य


मध्ये मार्गपरिश्रान्तो विश्रामं प्राप्य श्रृंगिण: ।
आश्रमे परमारामे कृष्णो वचनमब्रवीत् ॥१ ॥
त्वया संस्थापितां मूर्ति विश्रामद्वारकापतेः ।
अदृष्ट्वा द्वारकायात्रा नराणां निष्फला भवेत् ॥२॥
यथा व्यासमनालोक्य काशीयात्रा हि निष्फला ।
तथैव द्वारकायात्रा ऋतेऽत्राऽगमनाद् भवेत् ॥३॥

 उक्त श्लोकों के अनुसंधान से मालूम होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण जब द्वारिकापुरी में विराजमान थे, तब उनके दर्शनार्थ श्रृंङ्गिऋषि द्वारका पधार रहे थे। उस समय इसी स्थान पर विश्राम किया । श्रृंगी ऋषि जी ने पर्णकुटि (तपस्थली) बना कर श्रीद्वारकानाथ की आराधना की और भगवान् शंकरजीकी भी उन्होंने स्थापना की जो श्रृङ्गेश्वर महादेव के नाम से आज भी मौजूद है । इसी अवसर पर ऋषीश्वर की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् यह बरदान देते गये कि जिस प्रकार व्यासेश्वर के दर्शन बिना काशी श्रीविश्वनाथ का दर्शन निष्फल हो जाता है, उसी प्रकार आपके द्वारा समाराधित मेरी सौम्य मूर्ति के दर्शन विना द्वारका यात्रा निष्फल हो जायेगी ।

श्री त्रिदण्डि संस्थान जगद्गुरुश्रीरामानन्दाचार्यपीठ, श्रीशेषमठ परम्परा

 श्रीशेषमठ शींगडा श्रीसम्प्रदाय भर में प्रमुखपीठ है | इस मठ का महनीय इतिहास चढाव उतार से परिपूर्ण है । कहा जाता कि भट्टी कवि, कवि मुरारि तथा बनराज चावडा का यहां निरन्तर आना जाना होता था । (श्रीअवधेशदासजी रामायणीकृत शृङ्गपुर सुषुमा अप्रकाशित-अब भी मुझे याद है कुछ बनराज चावडा ऐसे दूरबीन से दूर का पास दीखता जैसे) यदि समय ने साथ दिया तो ख्याति अन्यथा विस्मृति का नैसर्गिक नियम है। खिष्ट की १९ वीं शदी का प्रारम्भ भारत में ऐतिहासिक शोधका समय गिना जाता है । विद्वत वर्गकी यह भावना आचार्यो, साधुओंको भी स्पर्श की और उन्होंने अपनी अप्रकाशित परम्पराओं को प्रकाशित कर इतिहासमें परिवर्धित करने की चेष्टायें की । श्रीसम्प्रदाय सदैव से ही अन्यों की अपेक्षा रहस्यप्रिय रहा है और अपने विषय में प्रकाश डालने में सदा कतराता रहा है।

 यों कहा जाता है कि द्वारका क्षेत्र में परम्परा अनुश्रुतिओंके आधारपर प्रथम पदार्पण ज. गु. श्रीसदानन्दाचार्यजी (ईशापूर्व २८०-२३) एवं ज. गु, श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी का हुआ, (विक्रम संवत पूर्व ३६-२३६) ज,गु, श्रीद्वारानन्दाचार्यजी (विक्रम संवत १९६-३७६) तो इस प्रदेश के ही थे " इसी समय वे सदानन्द द्वारिका तरफको आये । श्रीरामेश्वर को आनन्द दिये रुचिकर अपनाये । चित्रकूट उद्भूत वपुष वह सोम सदृशलगता था । शान्त तेज लखि उर में आदर भाव नया जगता था ।। वे ही दयासिन्धु आये अपनाये मुझको जाने | और मुझे विश्रामद्वारको कहकर के सनमाने ।। " (१.३-३४) इनके कृपापात्र शिष्य द्वारा यहीं पर वरद वराह भगवान् की स्थापना की गयी थी (रामानन्द सम्प्रदाय का इतिहास पूवार्घि पृष्ठ-१९७) कालान्तर में लम्बे समय तक अन्धकार है और सर्व प्रथम परम्परागत सूत्रपात ज.गु. श्रीश्रुतानन्दाचार्यजी को (विक्रमसम्बत ६३६-८३६) इधर देखते हैं । (शृगपुरसुषुमा-पुनः एक आचार्य जिन्हें सब श्रुतानन्द कहते थे । आकर यहां कुछ दिवस मेरी सेवा ले रहते थे। बहुत बडे विद्वान् मैत्रक को वेमंत्र दिये थे ।। बडे बडे विद्ववर उनका लोहा मान लिये थे । पुण्यभूति, मौखरी ठेठ दक्षिणतक उनका था यश ।। तनमनधन मैंने भी अपना वारा उनपर सर्वस । उनके रहते यहांभट्टिकवि आते ही रहते थे। रामचरितमानसकी कथा उन्हें आचार्यपादकहते थे ।। ।१,१-४३) उन्होंने ही विश्राम द्वारका (जो नाम अब भी इस स्थल का है, यद्यपि पर्याप्त विस्मृत हो गया है ) में भागवत कही पश्चात्वर्ती आचार्यगण तथा यात्रीगण भी यहाँ आये गये होंगे परन्तु जब श्रीपीपाजी के साथ ज.गु. श्रीभावानन्दाचार्यजी यहां पधारे थे तब यह तीर्थ अपनी उच्छिन्न अवस्था को प्राप्त हो रहा था । यद्यपि भाट इतिहास ज.गु. श्रीअनुभवानन्दाचार्यजी के द्वारका प्रवेश तथा शैव-मर्दन का बड़ा भयंकर वर्णन करता है परन्तु उन्होंने विश्रामद्वारका में क्या क्या किया वह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। बहुत समय बाद हमें ज.गु. श्रीरघुनाथाचार्यजी (विसं. १७५७-१८०७) तथा ज.गु. श्रीविश्वम्भराचार्य जी (वि. सं. १७७७-१८२७)पुनः विश्रामद्वारका में दिखलाई पड़ते हैं ।

 कहा जाता है कि वे परिभ्रमण करते हुए यहां आये और स्वप्न में इस स्थान का महात्म्य जानकर यहीं रुक गये। उनके कृपापात्रों की परम्परामें ज.गु. श्रीजानकीनिवासाचार्यजी वि.स. १८५१-१९१५ तक सभी यहां मात्र श्रीगोपालजी (सिंहासन में विराजे छोटे से लड्डूगोपाल ) की सेवा करते हुये बने रहे जिन्होंने सर्वप्रथम साम्प्रदायिकों के इस पवित्र तीर्थ की कथा जनता को सुनाई जिससे जनाभिरुचि इस ओर हुई किन्तु इस वीच यह तीर्थ-यात्रा स्थल विलकुल भुला दिया गया। इन ज.गु. श्रीजानकीनिवासाचार्यजी के कृपापात्र एकमेव शिष्य ज.गु. श्रीसाकेतनिवासाचार्य जी इस स्थान से कहीं चले गये । उनके बाद (१)ज.गु. श्रीजानकीजावनाचार्य जी (१८७५-१९०२) (२) ज.गु. श्री भरताग्रजाचार्य (१८४८- १९२३) एवं ज.गु. श्रीहनुमदाचार्यजी (१९०७-१९७८) ऐसे ३ पीढियां बीती । सन् १९३० में पुन: यह स्थान इस परम्पग के आधिपत्य में आया । इस बीच यहाँ एक अन्य परम्परा का प्रचार रहा जिसके ३ महन्त प्रख्यात हैं । मेहर शिशोदियावंश के रत्न राणा तथा डोसा के आत्मज दुदा तथान्य बन्धुवर्ग द्वारा स्वगुरु श्रीनन्दरामदास जी को यह शींगडा नामक ग्राम प्रदान किया गया जिसके अभिलेख स्वरूप श्लोक संग्रहीत है। (शीशोदियावंशज़रत्नराणादूदाख्यडोसात्मजबन्धुवर्गैः । श्रीनन्दरामाख्यगुरुं महान्तं मत्वाSर्पितोग्रामसुशींगडाख्यः । श्रीमन्मेहरवंशशेखरमणि दाख्यडोसात्मजः सप्त-ग्रामजन सुपञ्चपरिषन्मुख्या मिलित्वा समे । श्रीगोपालकलालपूजनकृते श्रीनन्दरामाभिर्धं बाबाऽऽख्यं परिपूज्य संवसथकं श्रीशृङ्गपुरं ददुः ।।) समय के साथ अन्य ग्राम को संकलित कर लिया गया और धीरे धीरे शींगडा स्टेट का निर्माण हो गया । सन् १९३० में तत्कालीन पोरबन्दर नरेश श्रीनटवरसिंहजी ने सब विधी योग्य तथा परम्परागत आचार्य जानकर तत्कालीन वायसराय श्रीलार्डवेवल द्वारा “महामहोपाध्याय" की गरिमापूर्ण उपाधि प्राप्त करनेवाले ज.गु. श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरघुवराचार्यजी वेदान्तकेशरीजी को गद्दी का आचार्य माना और उसके (आचार्यपीठ) के समस्त अधिकार सौंप दिया । उन्हीं के प्रशिष्य जगद्गुरु श्रीरामाननन्दाचार्य श्रीरामप्रपन्नाचार्यजीयोगीन्द्रजी के शिष्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्यजी उनके शिष्य आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्गुरुश्रीरामानन्दाचार्य स्वामी श्रीरामाचार्य जी वर्तमानपीठाधीश हैं ।


श्रीविश्रामद्वारकास्थ श्रीरामानन्दाचार्यपीठमें श्रीगोपालजीका मन्दिर

 जैसा कि पीछे कह आये हैं भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ विश्राम लिया गया था और तभी से महर्षि शृङ्गिद्वारा उनकी प्रतिमा प्रतिष्ठित हुई । काल के अन्धकार में वे प्रतिमायें कहाँ अपने को अन्तर्हित करली कहा नहीं जा सकता परन्तु लड्डू गोपाल के रूप में भगवान् अब भी विराजित हैं। जन्माष्टमी के अवसर पर मेला भरता है और भावुक व्यक्तियों का सागरसा हिलोरें लेता दिखलाई देता है

 वि.सं.१८३७ वसन्त पञ्चमी के दिन श्रीकल्याणरायजी तथा श्रीमाधवराय जी भी प्रतिष्ठित हुए वे भक्तों की मान्यताओं को पूर्ण करते हैं । वे ही श्रीविश्रामद्वारकाधीश के नाम से प्रसिद्धहै । मुख्य मन्दिर पर रजत आवरण है जिसपर दशावतार अंकित है । वर्तमान भव्यमन्दिर का निर्माण संवत १९३० से १९४२ में वहां लगे ताम्र पट्ट से सिद्ध है ऊपर मञ्जिका कार्य अपूर्ण होने से भगवत्प्रतिष्ठा नहीं की जासकी थी सौ वर्ष बाद अब श्रीरामानन्दाब्द ६८० विक्रम सम्वत् २०३६ माघ शुक्लापञ्चमी मंगलवार दि २२।१|८० को जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्य जी ने जीर्णोद्धार करवाकर श्रीराम महायोग के आयोजन के साथ विशेष समारोह पूर्वक सर्वेश्वर श्रीसीतारामजी भगवान् श्रीराधेश्यामजी आनन्दभाष्यकार जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य जी के श्रीविग्रहों की प्रतिष्ठा करवाई है।

(२)श्रीलक्ष्मी नारायणजी-मुख्य मन्दिर के दक्षिण भाग में भगवान् लक्ष्मीनारायण जी विराजमान हैं और भक्तों को आश्वाशन देती अभय मुद्रा में खडे हैं ।

(३) भगवान् श्रीविष्णुजी-मुख्य मंदिर के बामपार्श्व में भगवान् श्रीहरिजी विराजित हैं

(४) श्रीहनुमानजी-मुख्य मन्दिर के सामने दाहिनी ओर मंदिर के अन्तरंग में ही परम श्रीराम भक्त शिरोमणि श्रीहनुमानजी का मंदिर है ये अपने भक्तों की मानता को ग्रहण कर उनको अभीष्ट प्रदान करते हैं।

(५) श्रीगरुडजीयह मंदिर के ऊपर जाने वाली पुरानी सीढी के नीचे अवस्थित है।

(६) सर्वावतारी सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजीऊपर मंजिल के मध्य में अभय मुद्रा में सर्वेश्वर सर्वावतारी श्रीरामचन्द्रजी तथा सर्वेश्वरी भगवती श्रीसीताजी ज्ञान मुद्रा में सब भक्तों को अभय तथा ज्ञान प्रदान कर रहे हैं।

(७) भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीमुख्य मंदिर के वाम भाग में झान मुद्रा में लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णजी तथा रासराजेश्वरी श्रीराधाजी अभय मुद्रा में भक्तों की मनो-कामना सिद्ध कर रहे हैं।

 (८) मुख्य मन्दिर के दक्षिणभाग में सनातन हिन्दुधर्मोद्धारक विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय के प्रधानाचार्य प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यकार जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी विराजमान हैं।

(९) श्री गोपेश्वर महादेवजी मठ के बाहर निकलते समय मंदिर के प्रथम द्वार पार करते ही दाहिने ओर यह छोटासा मंदिर था जिसका आमूल जीर्णोद्धार कर भव्य शिखर बन्ध मंदिर वधवाकर दि० ३१।१।१९९० बुधवार २०४६ वसन्तपंचमी श्रीरामानन्दाब्द ६९० को जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामेश्वरानन्दाचार्य जी ने पुन: विशेष समारोह के साथ प्रतिष्ठा करवाई भगवान् भोले शंकर पशुओं के रोग मिटाने में आशुतोष है । इनकी मान्यता से पशुरोग दूर हो जाता है । दूर दूर से मानतायें आती रहती है । ऐसी किंवदन्ती है कि गोप के डूंगर पर विराजते भगवान् श्रीगोपनाथ ही यहाँ श्रीगोपालजी सेवा में विराजते हैं।

(१०) श्रीश्रृङ्गेश्वर हनुमानजीश्रीरामानन्दाचार्य पीठ के प्रवेश द्वार के निकट ही उत्तर दिशा में यह मंदिर अवस्थित है । भक्तों की मानतायें फलती हैं। शनिवारको तेल सिन्दूर चढ़ाने के लिये भीड उमडती है दक्षिणाभिमुख होने से अतिचमत्कारी हैं।

(११) कमैयामाताजी की मठियायह मठिया श्रीजानकी बाग में अवस्थित है और समस्त गाँव की कुलदेवी होने से विशेष पूज्या देवी हैं । प्रति दूसरे वर्ष वहाँ मेला लगता है।

 (१२) श्रीरामानन्द सम्प्रदायोन्नायक महामहोपाध्याय जगद्गुरुश्रीरामानन्दाचार्य श्रीरघुवराचार्यजी की मूर्ति को बसन्त पंचमी २०४३ मंगलवार श्रीरामानन्दाब्द ६८७ दि०३।२।१९८७ एवं जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामप्रपन्नाचार्यजी योगोन्द्र की मूर्ति को श्रीरामानन्दाब्द ६९० वसन्तपंचमी बुधवार २०४६ दि० ३१।१।१९९० को मंदिर के ऊपर मंजिल में प्रतिष्ठित करवाकर जगद्गुरु श्री रामेश्वरानंदाचार्य जी ने एक अनुखी गुरु भक्ति प्रदर्शित की है जो अनुकरणीय है|

श्री रघुवर संस्कृत महाविद्यालयइस संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना महामहोपाध्याय ज.गु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरघुवराचार्यजी ने सन् १९३१ ई. में की थी। तब से अब तक सहस्त्रों छात्र यहां से अध्ययन करके गए और सनातन धर्म संस्कृति का प्रचार प्रसार कर रहे है। श्रीरामानन्द सम्प्रदाय तथा सौराट्र में संस्कृत शिक्षा प्रसार का श्री रघुवर संस्कृत महाविद्यालय प्रथम केंद्र रहा हैं । विद्यालय में संस्कृत की उच्च शिक्षा का सुष्ठु प्रबन्ध है। जहां से जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य रामप्रपन्नाचार्य योगीन्द्रजी ज.गु,श्रीरामपदार्थदासजी वेदान्ती ज.गु,श्रीजानकीदासजी अभिनववाचस्पति पण्डितसम्राट स्वामीश्रीवैष्णवाचार्यजी तथा आनन्दभाष्यसिंहासनासीन जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य स्वामी रामेश्वरा-नन्दाचार्यजी प्रभृति विशिष्ट रत्न उद्भूत हुये । विभिन्न भारतीय प्रान्तों के साथ नेपाल तक के छात्रगण यहां शिक्षा ले रहे हैं । विद्यार्थियों के लिए रहने तथा भोजन आदि का निःशुल्क प्रबन्ध है।

श्रीरामानन्द पुस्तकालय यह पुस्तकालय भी ज.गु.श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरघुवराचार्यजीकी स्मृति है । उनके द्वारा स्थापित इस पुस्तकालय में प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों को संरक्षणमिला है । पुस्तक संख्या लगभग ५ हजार है श्री रघुवर संस्कृत महाविद्यालय तथा अन्यशिक्षित वर्ग इससे लाभ उठाता है । श्रीबालगोपाल गौशालामठ में गौसेवा के लिये अपाहिज अंगहीन गायों को संरक्षण दिया जाता है । शुध्द भारतीय गाये रक्खी जाती हैं इस समय १२१ गाएं गौशाला में है । खेती में उत्पन्न घासचारा इन्हें दिया जाता है । इनसे प्राप्त दूध छात्रों तथा अभ्यागत आगन्तुकों को निःशुल्क वितरीत कर दिया जाता है ।

श्रीजानकीबागमठ के प्रवेश द्वार के ठीक सामने थोडी दूरी पर यह बाग है । बाग मेंविभिन्न प्रकार के फलों के साथ भगवान् की सेवा के लिये अनेकशः पुष्पों के पौधे लगाये गये हैं बाग में पहुंचकर मन प्रकृति के साथ एकरंग सा हो जाता है बाग के मध्य में सूर्यकुण्ड है जहाँ यात्रालुजन स्नान आचमन व दर्शन करते हैं जो बाग को सिंचित करता है । इसे जीर्णोद्वार करके श्रीवेदान्तीजी ने पक्का बंधवाया हैं । पानी निकालने के लिए विधुत इलेक्ट्रिक मोटर लगाई गई है । छात्रगण स्नानादि प्रातः कर्मों के लिए यही आते हैं ।

श्रीरामबागकमण्डुल नदी के उत्तरतट पर अवस्थित यह बाग अपनी आम्रराशि के लिए सुख्यात हैं । कभी इस बाग में भी विभिन्न प्रकार के फल पकाए जाते थे परन्तु काल प्रवाह ने परिस्थियों को बदल दिया है । अब इस बाग में मुख्यत: आम हैं और जमीन को कृषि योग्य बनाकर खेती की जाती है । बाग के मध्य में कुंआ है जहाँ इलेट्रिकमोटर लग-वाई है । लोग दुष्काल व अन्य सामान्य दिनों में भी बगीचों से पूरा पूरा लाभ उठाते हैं।

श्रीश्रृङ्गेश्वरमहादेवकहा जाता है कि महर्षि शृङ्गिकी पुण्य समाधि पर अवस्थित यह भूतभावन भगवान् शंकर मंदिर सैकडों वर्षों के उतार चढाव देख चुका है । मठ से उत्तर में थोडी ही दूर पर यह शृङ्गेश्वर महादेवजी का पवित्र मंदिर है । प्राकृतिक रमणीयता के बीच यह स्थान बडा सुशोभन है । यहाँ पचासों वर्ष से अखण्ड दीप चालू है ।

चौरागाव के मध्य में यह मन्दिर चौरा केनाम से विख्यात है।

जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यपीठों की विविधप्रवृत्तियां

(१) धार्मिकनित्य नैमित्तिक पूजापाठ

 (२) विशेष अवसरों पर जयन्तियाँ पर्व,उत्सव एवं पारायण प्रवचन आदि

 (३) नित्य सायं संकीर्तन

 (४) योग्य शास्त्रनिष्णात आचार्यों द्वारा नित्य सायं धर्मोपदेश

 (५) सनातन धर्म के प्रचार से संबद्ध प्रत्येक प्रवृत्तियां !

 (६) प्रातः ८ वजे जगदाचार्य श्री का आनन्दभाष्यों पर दैनिक स्वाध्याय प्रवचन

(२) संस्कृत वाङ्गमय का प्रचार(क) जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यपीठ संचालित श्रीरघुवर संस्कृत महाविद्यालय एवं श्रीरघुवर रामानन्द वेदान्त महाविद्यालय में वेद, उपनिषद्, न्याय, व्याकरण, वेदान्त, साहित्यादि विषयों के पठन पाठन की सुन्दर व्यवस्था है । इन महाविद्यालयों में उच्च कक्षाके विद्वानों द्वारा देशके विभिन्न प्रान्तों तथा नेपाल आदि के छात्रों को निःशुल्क शिक्षा देने की उत्तम व्यवस्था है ।

 (ख) संस्कृत पढने वाले सभी छात्रों के लिये भोजन, निवास पुस्तक परीक्षा- शुल्क आदि व्यवस्था नि:शुल्क तथा कक्षानुसार छात्रवृत्ति की व्यवस्था है

 (ग) मैट्रिक, एफ, वाय, बी. ए. तथा एम, ए में जो छात्र संस्कृत विषयों के साथ अध्ययन करते हैं उन्हें तथा संस्कृत के रिसर्च स्कालरों को मार्गदर्शन भी दिया जाता है।

 (घ) प्राचीन गुरुकुल प्रणालीसे शिक्षा आदि ।

(३) योगसम्बन्धी-इन आचार्यपीठों के पीठाधीश स्वत: योगविद् थे और 'योगि-राज' नामक उपाधिसे अलंकृत थे वर्तमान में भी साधकों को योग्य मार्ग दर्शन मिलता है

(४) समाजिक (१) अन्नक्षेत्र (२) शिक्षा (३) उपदेशक निर्माण |

(५) जीवदया- गोशालाओं में पशुपालन । गोसंरक्षरण ।

(६) (क) साहित्य-श्रीरामानन्द वेदान्त दर्शन व साम्प्रदायिक साहित्यका प्रकाशन ।

 (ख) धार्मिक साहित्यका प्रकाशन

 (ग) भारतीयदर्शन व साहित्यका प्रकाशन ।

 वस्तुतः प्राणीसेवा एवं मानव विकास में जिस प्रकार सहयोग दिया जासके वे सब विषय इन स्थान की प्रवृत्तिके अन्तर्गत है । विश्रामद्वारका श्रीशेषमठ, शींगडा की एक शाखा पोरबन्दर में स्थित है। यह शाखा श्रीअवधविहारी मन्दिर श्रीजानकी मठ' के नाम से शीतलाचौकसे पश्चिमकी ओर १/४ किलो-मीटर की दूरीपर स्थित है और ‘शींगडा वालों का मन्दिर' इस नामाभिधान से प्रसिद्ध है। भगवान् श्रीअवधविहारीजी का मन्दिर मुख्य है परन्तु यात्रा में असुविधा अथवा शीघ्रता वशात् जो तीर्थयात्री श्रीविश्रामद्वारका नहीं पहुंच पाते, उनके लिये श्रीशेषमठ के ही श्रीगोपालजी की यहां पर भी प्रतिष्ठा की गई है । विश्रामद्वारका न पहुंच सकने वाले यात्रीगण यहां भग-वतदर्शनका लाभ लेते हैं । श्रीगोपालजीके दर्शन से वही पुण्य लाभ होता है जो श्रीविश्रामद्वारका दर्शन से श्रीगोपालजी के दर्शन में ही यात्राका साफल्य है ।

जानिए श्री राम मंदिर के बारे में वर्तमान स्थिति और तथ्य

पुस्तकें
छात्रों
गायों
कार्यक्रमों

11, 12, 13 दत्त सोसाइटी
श्री रामजी मंदिर, पालडी भठ्ठा अहमदाबाद - 380007